साहित्य
एक व्यंग्य – कोरोना तेरा नाश हो, कमबख़्त किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।

सत्यानाश हो इस कोरोना का, इसने हम लोगों को ऐसा घरों में बंद दिया है कि हम किसी को मुँह दिखाने के लायक भी नहीं रहे। घर से निकलो तो हर वक्त मुँह ढ़ककर निकलो यानि मास्क लगाकर निकलो। मेडिकल दुकाने वालों ने ऐसे ऐसे मास्क निकाले है कि पहनने के बाद आदमी को कोई माई का लाल पहचान नहीं पायेगा। काले, लाल, हरे व अन्य रंगबिरंगे मास्क जो साधारण ‘यूज एण्ड थ्रो’ वाले मास्क से हटकर है। यूज एण्ड थ्रो वाले मास्क में आदमी पहचान में आता है लेकिन इन काले, हरे या लाल मास्क में आदमी को पहचान पाना लगभग मुश्किल कर दिया है।
पता नहीं कैसी पढ़ाई थी हमारे जमाने में, ऐसे शब्द सुनने में आ रहे है जो स्कूल तो स्कूल, कॉलेज में भी कभी देखने, सुनने या पढ़ने को नहीं मिले… यानि हम पढ़े लिखे गँवार थे क्या? सोशल डिस्टेंस, क्वारंटाइन, आइसोलेशन, कोरोना, कोविड व पता नहीं क्या-क्या! अब सोशल डिस्टेंस का मतलब क्या होता है? सामाजिक दूरी न? तो इसको फिजिकल दूरी क्यों नहीं…आदमी से आदमी की दूरी होना चाहिए तो यह फिजिकल दूरी में आना चाहिए। अब भुगतो… जितने लोग मरे उससे हजार हजार गुना ज्यादा पैदा होने की तैयारी में है, ऐसी खबरें विश्वभर के मीडिया में आ रही है। पता नहीं लॉक डाउन कितना लम्बा चलेगा, अभी भी इसको ‘फिजिकल डिस्टेंस’ बनाया जा सकता है।
खैर, विषय से भटक गया था, घर से मास्क लगाकर निकलता हूँ तो गली वाले भी अजीब नजरों से घूरते हैं मानो मैं कोई एलियंस हूँ। एक दो बार मास्क हटाकर उनको अपना भला बुरा चेहरा दिखाया भी कि ‘मैं हूँ…।’ अब तो लोगों को बालों की स्टाइल के आधार पर ही पहचानना पड़ेगा क्योंकि यह मास्क वाला फार्मुला सभ्य समाज का हिस्सा बनने जा रहा है।
सब यही कहते हैं कि आने वाले समय में ‘मास्क सभ्य समाज का हिस्सा बनने जा रहा है’, लो कर लो बात! मैं तो तब से ही इस बात से परेशान हूँ कि इस ‘सेल्फी युग’ में बिना मास्क फोटो कैसी खींचेंगे? सेल्फी में सबसे प्रभावशाली अदा चेहरे के हाव भाव, होठों की विभिन्न अदाओं के साथ चेहरे के हाव भाव भी तो दिखने होते हैं, हैं, तो फिर भला मास्क के साथ सार्वजनिक स्थान पर सेल्फी कैसे लेंगे? क्या यह समझा जाये कि सेल्फी युग समाप्त होने जा रहा है?

Paryavaran
मैं तो मुझसे ज्यादा मेरी उन प्यारी बहन बेटियों के लिए चिंताग्रस्त हूँ जो टिकटॉक, फेसबुक, इन्सटाग्राम आदि में दिन में तीन बार अपनी विभिन्न अदाओं की सेल्फी अपलोड़ करती है। एक तरफ तो कम्पनिया 100 मेगाफिक्सल से ज्यादा के सेल्फी कैमरे बनाने में जुटी है, दूसरी तरफ मास्क हमारी सभ्यता का हिस्सा बनने जा रहा है। एक ऐसी अनचाही सभ्यता, जिसकी कल्पना आपने या हम में से किसी ने नहीं की थी।
50 साल की उम्र के बाद कम्बख्त हाथ धोना आया है मुझे, अब जाकर मैं दिन में कई बार साबुन से अच्छी तरह हाथ धोता हूँ। पहले हमारे बुजुर्गों ने राख या मिट्टी से तीन-चार बार अच्छी तरह मलकर हाथ धोना सिखाया था, लेकिन हम लोग हमारी ही धुन में थें… नहीं माना अब भूगतो। अब तो हमारी जिन्दगी में न राख रही न मिट्टी। गलिया सिमेंटेड हो गई व राख तो समाप्त हुये जमाना गुजर गया, अब गैस चूल्हों में राख नहीं बनती… अब तो राख सिर्फ श्मशान घाट में मिलती है, जो न हाथ धोने के काम आती है न बर्तन माँजने के काम आती है, काम आती है तो सिर्फ हमारे इस जीवन से मुक्त होने में… जहाँ तक पहुँचाने में यह कोरोना कोई कसर नहीं छोड़ रहा।
वैसे तो हमारे पुरखों ने आँवला, नीम गिलोय व गर्म मसालों का सेवन करने की आदत हम लोगों में विकसित करने का प्रयास किया था लेकिन हम उन्हें ठुकराकर आगे बढ़ गये। अब आयुष मंत्रालय कहता है कि इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए ‘च्यवनप्राथ’ खाओ… जो काम फ्री में होता था अब पैसे देकर खरीदो जो इस लॉक डाउन में संभव नहीं। शहरों में नीम गिलोय नहीं, प्राकृतिक शुद्ध हवा नहीं, राख नहीं, मिट्टी नहीं तो फिर बचा क्या हमारे पास? करवाओ मिट्टी पलीत व मिट्टी में मिल जाओ।
अब ड़र के मारे सब शहर से गाँव भाग रहे हैं, कहते हैं कि फंस गये निकालो सरकार! अब वर्षों से अपनी तिजोरियां भर रहे थें, आलीशान फ्लेटों में रह रहे थें, गाड़ियों में घूम रहे थें व कभी-कभी किसी मौत या जश्न में शाम से गाँव आते थें तो जाने का टिकट पहले कन्फर्म जेब में डालकर आते थें। वहीं लोग कहते हैं कि फंस गये है हमें गाँव जाने दो… अरे फंसे तो वो मजदूर व मजबूर लोग गये हैं जो पूरा दिन सर पर बोझा ढ़ोकर शाम को अपनी हाथ लॉरी में सोते थें। फंसे तो वह मजदूर व मजबूर लोग गये हैं जो पूरा दिन रिक्शा चलाकर शाम को किसी दुकान के पैडले की आड़ में सो जाते थें। अरे फंसे तो वह मजदूर व मजबूर लोग गये हैं जो प्रात: उठकर ‘सुलभ शौचालय’ में अपने दैनिक कार्य निपटाकर काम पर जाते थें।
अब सबको गाँव याद आ रहा है, जहाँ के खेत बेचकर शहरों में आलीशान फ्लेट खरीद लिये। अब गाँव रहे कहाँ पहले वाले…? हम लोगों ने ही अपने हाथों से गाँवों को समेटकर शहर जाने का रास्ता निकाला था, भुगतो अब। अब मीडिया कहता है कि गंगा साफ हो गई, यमुना साफ हो गई, कावेरी साफ हो गई, दूर-दराज से वह पहाड़ नजर आने लगे जो पहले कभी नजर नहीं आये वगैरह वगैरह।
मीडिया कहता है कि जब से लोग घरों में बंद हो गये तब से पर्यावरण को काफी फायदा हुआ है! अरे शर्म करो शर्म, लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करो कि वह ऐसा कोई कृत्य न करे जिससे पर्यावरण बिगड़े, अब हम पर्यावरण को बनाए रखने के लिए या उसके संतुलन के लिए आजीवन लॉक डाउन में बंद होकर रह जाये क्या? यह क्या बात हुई भला। हमें ऐसी जीवनशैली अपनानी होगी जो पर्यावरण हित में हो। घरों में कैद होकर पर्यावरण को सुधारने की बात करना क्या उचित है भाईयो बताओ?
आज स्थिति यह हो गई है कि हम मास्क लगाकर जब घर से निकलते हैं तो सोचना पड़ता है जाये कहा? कोई राह में मिलता है तो न वह हमें पहचान पाता है न हम उसे। सब एक दूसरे से अनजान है। सड़कें, बाजार व बाग-बगीचें सब विराग हो गये हैं। जो शहर कल तक शाम होते ही रंगबिरंगी रोशनी में नहा उठते थें, अब दिन में भी ड़राते हैं यार? अब दिन तो सोने में गुजर जाता है लेकिन रात यह सोचने में कि आने वाली सुबह कैसी होगी? ऐसा लगता है कि हमने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया है और जेल में कैद हो गये हैं, ऐसी कैद जिसकी रिहाई कब होगी वह उस ‘जज’ के हाथ में है जिसे आस्तिक लोग ‘परमात्मा’ कहते हैं।
साहित्य
साहित्य (व्यंग्य) – एक शराबी की आप बीती।

साहित्य (व्यंग्य) – वह चौराहे पर शांति से बैठा हुआ था। तभी उसने देखा कि एक शराबी (बेवड़ा) जा रहा है। हाथ में दारू का पव्वा था। वह झूमते गाते जा रहा था -”बहारों फूल बरसाओ कि मेरा महबूब आया है… मेरा मेहबूब आया है।” उसे ताज्जुब हुआ, उसने शराबी को आवाज़ लगाई- ”अरे बेवड़े इधर आ।” शराबी डगमगाता हुआ उसके पास आया, हैरानी से देखा मानो पूछ रहा हो कि क्यों बुलाया है? उसने बेवड़े की हैरानी को कम किया -”क्यो बे बेवड़े कौन मेहबूब आ गया है तेरा? इतना खुश होकर गा रहा है?”
बेवड़े ने जवाब दिया -”अरे साहब जी हमारे लिए तो यह दारू का पौवा ही मेहबूब है… इतने दिन से दूर था यह मुझसे आज सरकारी फरमान के बाद मुझे मिला है यह मेरा मेहबूब…!” कहते हुए उसने पौवे को चूम लिया। अब तो उस शरीफ व्यक्ति को भी गुस्सा आ गया -”तुम लोगों को खाने केलिए पैसा मिलता है, भोजन के कीट मिल रहे है… गरीब होने का नाटक करते हो तुम लोग! दारू केलिए कहा से आता है पैसा?” अब तो मानो बेवड़ा भड़क गया। उसका दारू उतर गया मानो… गुस्से से पहले तो शरीफ को घूर कर देखा फिर जवाब दिया -”देखो साहब हम लोग झोपड़े में रहते हैं। पूरा दिन मेहनत मजदूरी करते हैं… शाम को परेशान होकर एक पौवा गटक कर सो जाते है तो इसमे हर्ज क्या है??”
उसने बोलना जारी रखा -”दारू पीकर सोने से न तो हमे बरसात में टपकती छत की चिंता है, न मच्छर काटने की न बीमारी की… हमारी बस्ती में आकर एक दिन बिताओ पता चले पौवे के बिना जिंदगी कितनी हराम है।” वह शरीफ व्यक्ति उस बेवड़े का मुंह ताकता रह गया…”यानी सारा कसूर सरकारों का?” इस बात पर बेवड़ा बोला -”साहब ज्ञान रहने ही दो अब… दारू मत उतारो मेरा। आपको मालूम है यह पौव्वा मेरा महबूब कितने का है? यह देसी है 40 रुपए का… अंग्रेज़ी कौन पीता है हम? नहीं अंग्रेज़ी पीते है शरीफ लोग हजारों रुपये की बोतल आती है… शान से पीते है सोडे व बर्फ के साथ … वो शरीफ और हम दुनिया भर के गम भुलाने केलिए सिर्फ शांति से सोने केलिए पीते है। बनाने वाले शरीफ, बेचने वाले शरीफ, टैक्स लेने वाले शरीफ, हजारों रुपये की अंग्रेज़ी पीने वाले शरीफ, कोरोना जैसी महामारी में शराब की दुकाने खोलने वाले व खुलवाने वाले शरीफ…. और हमारी फ़टे कपड़े देखे नहीं कि हम बेवड़े… यह नाइंसाफी है ठाकुर!”
बेवड़े का ज्ञान देखकर एक बार शरीफ भी घबरा गया। कुछ देर सोचता रहा फिर बोला -”तो तुम्हे क्या लगता है सरकार को क्या करना चाहिए?” अब बेवड़ा मुस्कराया… बोला -”मै तो कहता हूं साहब दारू खरीदने वाले आधार कार्ड से दारू खरीदे… उन्हें गरीबी की सीमा से हटा दिया जाए… कोई सुविधा नहीं सब झगड़ा खत्म… दूध का दूध व पानी का पानी हो जाएगा। पता चल जाएगा कि अमीर दारू पीता है या गरीब… अरे साहब गरीब को तो दारू पी जाती है, दारू तो अमीर पीते है अंग्रेज़ी एकदम झकाश….।”
शरीफ भी मुसकाया -”चल अनिल कपूर मत बन… जा अब।” वह गुस्सा हो गया -”दारू उतरा उसका क्या?” शरीफ बोला -”मतलब…” बेवड़ा बोला -”एक पौवा दिलाओ…इतना ज्ञान फ्री में कौन देता है!” शरीफ ने उसे 100 की हरी नोट देकर रवाना क़िया।
वह जाते जाते बोला -”बहारो फूल बरसाओ ….।” शरीफ व्यक्ति में मन मे कई सवाल थे लेकिन जवाब किसी का नहीं था। एक बात तय थी कि देश के विकास में बेवड़ों का योगदान भी कम नहीं था।
साहित्य
एक लघुकथा – समाजसेवा के मायने क्या है? क्या है समाजसेवा?

एक लघुकथा – एक पैसेलाल नाम के समाजसेवी को फ़ोटो का बहुत शौक था। वह खबरों में बने रहने केलिए ही सेवा करता था। एक बार एक महापुरुष की जयन्ति पर एक मरीज को 2 केले दान किये। सुबह अखबार में पैसेलाल जी की मरीज को केले देते फ़ोटो प्रमुखता से छपी, पैसेलाल जी के साथ उनके दो चार चाहने वाले भी थे। अखबार में हेडिंग थी ‘हॉस्पिटल में पैसेलाल जी द्वारा गरीब मरीजों को फल वितरित।’
दो दिन बाद पैसेलाल जी को पता चला कि वह मरीज चल बसा है। उन्होंने अपने सेकेट्री को कहकर अखबार में प्रेस नोट जारी किया -‘मंगलवार को प्रसिद्ध समाजसेवी पैसेलाल जी जाएंगे कालीचरण की बैठक में’, खबर को अखबार ने प्रमुखता से छापा। बुधवार को अखबार में फिर खबर छपी ‘पैसेलाल जी ने कालीचरण की विधवा को दिया मदद का आश्वासन।’
कुछ दिनों के बाद पुनः अखबार में पैसेलाल जी द्वारा कालीचरण की विधवा को राशन कीट बांटने की खबर छपी। कुछ दिनों के बाद एक सुबह पैसेलाल जी के सहयोगी उनके सामने था, बोला -‘साहब जी एक खबर है?’ पैसेलाल जी ने आँखे फाड़कर अपने सहयोगी को देखा -‘क्या?’, उनके सहयोगी ने कहा -‘साहब सुना है कालीचरण के बच्चों का स्कूल में एडमिशन हो गया है’ वह मुस्कराते हुए बोला। पैसेलाल जी की आंखों की चमक गहरी हो गई -‘तो क्या करना चाहिए?’ सहयोगी ने सुझाव दिया -‘साहब क्यों न हम एक दिन उनके बच्चों को स्कूल का बस्ता भेंट कर दे?’ पैसेलाल जी की आंखों की चमक गहरी होती चली गई। उनकी आंखों के सामने अखबार में छपी फ़ोटो नाचने लगी, बोले ‘सुझाव अच्छा है आखिर शिक्षा हर बच्चे का अधिकार है।’ उनका सहयोगी मुस्कराया।
साहित्य
एक सवाल – घर आजा परदेसी तेरा देश बुलाये रे….। क्या अपनों को पुकार रही है जन्मभूमि?

घर आजा परदेसी – क्या आपको ऐसा महसूस हो रहा है कि प्रदेश में रहने वाले अपने लोगों को उनकी जन्मभूमि पुकार रही है? यह सवाल इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि इन दिनों हर कोई अपने घर जाने को आतुर है। लोग कर्मभूमि से अपनी जन्मभूमि की तरफ पैदल ही चल पड़े हैं। सैकड़ो किलोमीटर की दूरी कोई पैदल तय कर रहा है, तो कोई साइकल पर…. कोई ट्रक के भीतर छूपकर तो कोई सब्जी की गाड़ियों में छूपकर, सबका प्रयोजन सिर्फ एक ही है अर्थात अपने घर जाना।
कोरोना महामारी के चलते देश में संकट गहरा हो गया है। जहां एक तरफ कोरोना का खतरा, दूसरी तरफ सरकार का आदेश कि जो जहां है वही रहें, के बावजूद लोगों की अपने घर के प्रति तड़प कई प्रश्न पैदा कर रही है। क्या लोगों का कर्मभूमि से मोहभंग हो गया है? क्या जो लोग प्रदेश से अपने घर पहुँच रहे है, वो पुन: प्रदेश जाने के बारे में विचार करेंगे? कई लोगों का मानना है कि लोगों का अब प्रदेश के प्रति मोहभंग हो चुका है। अब लोग अपने ही गांव या शहर में छोटा-मोटा व्यवसाय करेंगे लेकिन शायद पुन: प्रदेश की और रूख न करे। अर्थात घर आजा परदेसी की तर्ज़ पर धरती उन्हें पुकार रही है।
जिन लोगों के पास अपने गांव, कस्बे या शहर में खेती की जमीन है, वह खेतीबाड़ी करेंगे या अन्य कोई व्यवसाय करेंगे। क्या ऐसा संभव है कि लोगों का कर्मभूमि से मोहभंग हो जायेगा? कोरोना महामारी ने देश के हालात के साथ-साथ आम व्यक्ति को ड़रा दिया है व अनेकों सवाल उनके दिलो-दिमाग में पैदा हो रहे है, जिनका जवाब फिलहाल उनके पास नहीं है। बस हर कोई अपने गांव जाना चाहता है। मैंने व्यक्तिगत तौर पर कई लोगों से बातचीत की, उनकी राय जानी व इस सवाल को तलाशने का प्रयास किया है। हमने इस मर्म को समझने का प्रयास किया है कि क्या सब परदेसी घर आना चाहते है। ‘घर आजा परदेसी’ की धुन सबको सुनाई दे रही है?

City Building
दरअसल शाम होते ही पालतू जानवर गाय, भैंस व भेड-बकरियां भी अपने घर की तरफ दौड़ पड़ती है, क्योंकि उन्हें पता है कि वह कितना भी जंगल में घूम ले लेकिन उनके लिए सुरक्षित स्थान उनके मालिक का घर ही है। इसी प्रकार इंसान दुनिया घूम ले लेकिन वह संतोष व सुरक्षा अपने घर में ही प्राप्त करता है, इसलिए हर परदेसी घर आना चाहता है।
कोई भी इंसान खुशी से अपना घर छोड़ना नहीं चाहता, उनकी मजबूरियां, उनकी जरूरतें, उनके सपनें, उनके बच्चों का भविष्य व दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का उनका मोह उन्हें अपने घर से दूर ले जाता है। जितना महत्व जन्मभूमि का है, उससे ज्यादा महत्व कर्मभूमि का भी है। इंसान की जरूरतों ने उन्हें अपने घर से दूर कर दिया है। कर्मभूमि इंसान के लिए मातृभूमि से कम नहीं है, क्योंकि यहां उनके सपनें पूरे होते हैं, उनकी जरूरत पूरी होती है व उसके बच्चों का भविष्य अंगड़ाई लेता है। जीवन में जिस धन की जरूरत पड़ती है वह कर्मभूमि से अर्जित करता है।
अपने घर से दूर-दराज प्रदेशों में काम करने वाले व्यापारियों, नौकरीपेशा लोगों व मजदूर वर्ग की संख्या कोई छोटी-मोटी संख्या नहीं है बल्कि कई राज्यों की अर्थव्यवस्था प्रवासियों पर निर्भर करती है। हर राज्य, हर शहर व हर गली में कोई न कोई परदेसी आपको मिल जायेगा जो दूर-दराज का रहने वाला है तथा रोजी रोटी की तलाश में आया है। घर से दूर प्रदेश में कई लोगों के अपने स्वयं के घर है तो कई किराये के घरों में अपना जीवन यापन कर रहे हैं।
बेशक अभी स्थिति गंभीर है, बेशक कोरोना जैसी महामारी ने प्रवासियों के मन में चिंता की लकीरें पैदा की है लेकिन, यह स्थायी नहीं है। फिलहाल अपने अपनों से दूर है, कोई अपने माता पिता से, कोई अपने बच्चों से व कोई अपने अन्य रिश्तों से… इसलिए वह सुरक्षित रूप से अपने लोगों के साथ यह संकट का समय टालना चाहते है। इंसान के जीवन का एक सपना होता है कि वह जीवनभर संघर्ष करता रहे, लेकिन अंतिम समय में वह अपनों के साथ बिताना चाहता है।
वर्तमान स्थिति बहुत भयानक है, लोग अपनों के पास आने व उनके कंधों पर अपने सर को रखकर अपने रूके हुये आंसूओं को बाहर लाना चाहते हैं। जब स्थिति सामान्य हो जायेगी, घर की जरूरतें सवाल खड़े करेगी, बच्चों के भविष्य के सपनें उनकी आंखों के सामने तैरने लगेंगे व जीवन की जरूरत ‘धन’ पर केन्द्रित हो जायेगी तो फिर वह अपना बैग अपने कंधों पर लादे दूर-दराज किसी प्रदेश की राह पकड़ लेंगे।

Train
लोगों की जरूरतें अब अपने गांव में पूरी नहीं हो सकती। अब न तो इतना पानी बचा है कि सब अपने खेत में खेती कर सकें, न इतनी जमीन बची है, यानि न खेत न खलियान…। जहां कभी जंगल थें, खेत थें व खलियान थें, वहां हमारी जरूरतों ने उन्हें कंक्रीट के भवनों में तब्दिल कर दिया है। अब सबके सपने अपने ही गांव में पूरे होने मुश्किल है। अब गांव में हर व्यक्ति के पास न खेती की जमीन है, न पर्याप्त पानी है न संसाधन।
हम हमारे सपनों व महत्वकांक्षाओं में बहुत आगे बढ़ आये हैं, हमारी जरूरतें अब बढ़ चुकी है। इसलिए किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि लोगों का कर्मभूमि (प्रदेश) के प्रति मोहभंग हो जायेगा, कदापि नहीं। मौजूदा माहौल में एक ड़र है, जिसमें हर कोई एक सुरक्षा कवच धारण करना चाहता है और वह सुरक्षा कवच उसे अपनी जन्मभूमि में मिल सकता है। जब स्थिति सामान्य हो जायेगी तो अपनी-अपनी जरूरतें, अपने ही कंधों पर लादे पुन: रवाना हो जायेंगे।
‘घर आजा परदेसी’ की धुन फिल्मी धुन है व इसकी सच्चाई भी फ़िल्मी है। हा, 5-10 प्रतिशत लोग गांव या अपने शहर में काम की तलाश कर सकते हैं व स्थायी बसेरा कर सकते है लेकिन लोगों की जरूरतें उन्हें वापस वही ले जाएगी जहाँ उनका जीवन यापन होगा। जीवन में कर्म का महत्व भी उतना ही है जितना कर्मभूमि का, इसलिए सब अपने सपनों के साथ वापस आएंगे। इन दो पंक्तियों में इस आलेख को मर्म को समझने का प्रयास करें —
मैं जाना चाहता हूँ अपने गांव की ओर,
अपने लोगों के बीच,
मैं देखना चाहता हूँ उन गलियों को,
जहां गुजारा मैंने अपना बचपन,
ऐ शहर मुझे जाने दे अपनों के बीच,
अगर जिंदा रहा तो लौट आऊँगा फिर,
अपने सपनों को अपने कंधों पर लादे,
मैं जाना चाहता हूँ अपने गांव की ओर,
जिंदा रहा तो फिर आऊँगा तेरी ओर।